* कविता : दृष्टव्य बंधन
जो तुम चले जाते हो
तो
ये बहुत बुरा लगता है
कि
मुझे बिलकुल भी बुरा नहीं लगता ।
मैं चाहता हूँ
मुझे सबसे अच्छा लगे
जब तुम मेरे पास रहो ;
क्योंकि
हम बँधे हैं उस बंधन में ,
चाहे किसी भी परिस्थितिवश ;
जब तक दृष्टव्य है यह बंधन
सर्वमान्य है जिसमें यह
कि एक पल का बिछोह ,
या क्षण भर की ओझलता
कष्टकारी होती है ,
रुद्नोत्पादी होती है ;
सख़्त कमी की तरह खलती है ;
कुछ करो कि
मैं तुम्हारे बिना
अपना अस्तित्व नकारूँ ,
तुम्हे तड़प तड़प कर
गली-गली , कूचा-कूचा पुकारूँँ ,
जैसे नकारता पुकारता था
इस बुरा न लगने की परिस्थिति से पहले ;
क्या हो चुका है हमें ?
तुम भी बहुत कम मिलते हो ,
मुझे भी इंतज़ार नहीं रहता ;
तुम जाने को कहते हो
मैं रोकता नहीं हूँ ;
तुम्हे भी अच्छा लगता है ,
मुझे भी अच्छा लगता है ;
हमें एक दूसरे से
जुदा होते हुए ,
सिर्फ़ बुरा लगना चाहिए ;
सिर्फ़ बुरा ही लगना चाहिए ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति