34. ग़ज़ल : दो वक़्त रोटियों का
कि दो वक़्त रोटियों का , अगर इंतिज़ाम होता ।।
तो भूखों में ही सही पर , कहीं एहतिराम होता ।।1।।
जो बरदाश्त ही न होती , वो ही मुझमें प्यास होती ,
तो हाथों में मेरे भी इक , ठो लबरेज़ जाम होता ।।2।।
ज़रूरी न थी रे साज़िश , मुझे मारने की मुझसे ,
तेरा हँस के ‘ जान दे दो ‘ , ही कहना तमाम होता ।।3।।
कि संजीदगी से अपने , अगर फ़न को ले मैं लेता ,
तो दुनिया में आज मेरा , भी हर सिम्त नाम होता ।।4।।
तो मुझसे निकाह पढ़ने , को महबूबा मान जाती ,
जो इक नौकरी ही होती , या फिर काम धाम होता ।।5।।
क्या होता नहीं वो इंसाँ , बताओ तो मुझको कोई ,
जो होता किसी का ख़ादिम , किसी का ग़ुलाम होता ?6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति