53 : ग़ज़ल – मुद्दत से बंद अपना मुँह
मुद्दत से बंद अपना , मुँह खोल मैं रहा हूँ ।।
हर लफ़्ज़ अब क़सम से , सच बोल मैं रहा हूँ ।।1।।
उनके भले की ख़ातिर , बेशक़ दग़ा है लेकिन ,
खोल अपने दोस्त की ही , अब पोल मैं रहा हूँ ।।2।।
मुझमें कोई कहाँ है , कब लोग जान पाए ?
कंचे सा जो हमेशा , ही गोल मैं रहा हूँ ।।3।।
जिनकी निगाह में अब , क़ीमत रही न अपनी ,
कल तक जहाँ में सबसे , अनमोल मैं रहा हूँ ।।4।।
इक रोज़ में तुम उसका , लेने को राज़ आए ,
जिसको न जाने कब से , नित टोल मैं रहा हूँ ।।5।।
चाहत के कुछ मुताबिक़ , इसमें न कोई डाले ,
दरवेश का जो ख़ाली , कजकोल मैं रहा हूँ ।।6।।
वादा तेरी मदद का , भूला नहीं हूँ लेकिन ,
हालात हैं कुछ ऐसे , सो डोल मैं रहा हूँ ।।7।।
सस्ते में बेचकर भी , होता नहीं है नुक़्साँ ,
सौदा हर इक शुरू से , कम तोल मैं रहा हूँ ।।8।।
( टोल = टटोल , कजकोल =भिक्षा पात्र )
– डॉ. हीरालाल प्रजापति