54 : ग़ज़ल – बहुत चाहत है
बहुत चाहत है वो बोलूँ , मगर जो कहना मुश्किल है ।।
है जिनसे बोलना उनका , भी उसको सुनना मुश्किल है ।।1।।
मुझे करना है इज़्हारे , तमन्ना अपने दुश्मन से ,
ज़ुबाँ खुलती नहीं और बिन , कहे भी रहना मुश्किल है ।।2।।
हैं माहिर लोग ग़ैरों को , भी सब अपना बनाने में ,
यहाँ अपनों को भी अपना , बनाए रखना मुश्किल है ।।3।।
कहाँ होती हैं दुनिया में , सभी की ख़्वाहिशें पूरी ,
अधूरे ख़्वाब ले फिर ज़िंदगी जी सकना मुश्किल है ।।4।।
न कर नाहक़ लतीफ़ागोई मैं ग़मगीन हूँ इतना ,
हँसी की बात पर भी आज मेरा हँसना मुश्किल है ।।5।।
करो करते रहो मुझ पर , जफ़ा जी भर इजाज़त है ,
सितम तो जब कोई अपना , करे तब सहना मुश्किल है ।।6।।
चपत दिखलाएगा दुश्मन , तो मैं तो लात जड़ दूँगा ,
मेरा इस दौर में गाँधी , सरीखा बनना मुश्किल है ।।7।।
बहुत आसान है देना , सलाहें वो भी बिन माँगे ,
मगर हालात के मारों , का उन पर चलना मुश्किल है ।।8।।
अगर जाना है रेगिस्तान फ़ौरन ऊँट बन जाओ ,
वहाँ मेंढक या मछली का , क़दम भर चलना मुश्किल है ।।9।।
( लतीफ़ागोई = चुटकुला सुनाना )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति