56 : ग़ज़ल – मुझको जीने की
मुझको जीने की मत दुआ दो तुम ॥
हो सके दर्द की दवा दो तुम ॥
क्यों हुआ ज़ुर्म मुझसे मत सोचो ,
जो मुक़र्रर है वो सज़ा दो तुम ॥
मुझको हमदर्द मानते हो तो ,
अपने सर की हर इक बला दो तुम ॥
मैं तो तुमको बुला-बुला हारा ,
कम से कम अब तो इक सदा दो तुम ॥
यूँ न फूँको कि बस धुआँ निकले ,
ख़ाक कर दो या फिर बुझा दो तुम ॥
रखना क़ुर्बाँ वतन पे धन दौलत ,
गर ज़रूरत हो सर कटा दो तुम ॥
वो जो इंसाँँ बनाते हैं उनको ,
कुछ तो इंसानियत सिखा दो तुम ॥
फँस गया हूँ मैं जानते हो गर ,
बच निकलने की रह बता दो तुम ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति