■ मुक्तक : 110 – पाँव में फटते ज्यों Posted on March 12, 2013 /Under मुक्तक /With 0 Comments ( चित्र Google Search से साभार ) पाँव में फटते ही आ जाएँ ज्यों ज़ुराबें नई ।। ख़त्म होते ज्यों ढलें प्यालों में शराबें नई ।। कोई पन्ने भी पलटता नहीं है उनके मगर , उनकी छप-छप के चली आती हैं किताबें नई ।। -डॉ. हीरालाल प्रजापति 5,254