■ मुक्तक : 127 – जो कुछ भी था Posted on March 24, 2013 /Under मुक्तक /With 0 Comments जो कुछ था सब वो तेरी , वज़्ह दस्तयाब था ॥ नाकाम रह के भी मैं , सबसे कामयाब था ॥ दुश्मन मेरा तू क्या हुआ मैं प्यास हो गया , ग़ैरों की तिश्नगी को , भी जो शीरीं-आब था ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति 6,239