74 : ग़ज़ल – है राह उजाले की
है राह उजाले की क्या इसके सिवा कोई ?
मत कोस अँधेरे को जला ले दिया कोई ॥
मंज़िल की तरफ़ पूरी लगन से तू चल चला ,
इकलव्य का होता न कहीं रहनुमा कोई ॥
ख़ुश रह के ही हो सकती है बस ज़िंदगी दराज़ ,
रो-रो के न दुनिया में ज़ियादा जिया कोई ॥
हर फर्ज़ निभा क़र्ज़ चुका फ़िर जहाँ से उठ ,
लौटे न जो इक बार यहाँ से गया कोई ॥
माना कि ग़रीबों को भी मिलते दफ़ीने सच ,
होता न मगर रोज़ यही वाक़या कोई ॥
तुझको भी मोहब्बत का जो लग रोग है गया ,
तो उम्र की है ये नहीं तेरी ख़ता कोई ॥
राहों पे मुनासिब है कि आराम मत करो ,
मंज़िल पे मगर आ के भी चलता भला कोई ?
लंबी सी ख़तरनाक सी सुनसान सच की इक ,
चल के दो क़दम राह से वापस चला कोई ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति