88 : ग़ज़ल – मैं बेक़रार हूँ
मैं बेक़रार हूँ तुम , मुझको क़रार दे दो ।।
नफ़रत तो दी सभी ने , तुम प्यार–व्यार दे दो ।।1।।
इन्आम , तमगे मेरा , क्या पेट भर सकेंगे ?
गर हो सके तो मुझको , इक रोज़गार दे दो ।।2।।
चिल्लाते चीखते सब , स्वर मेरे फट गए हैं ,
मेरे गले को सिलने , वीणा के तार दे दो ।।3।।
बच्चे भी बातों बातों , में तानते तमंचे ,
मुझको क़लम बदल के , चाकू कटार दे दो ।।4।।
सूखे ये मिट्टी इससे , ऐ बुततराश पहले ,
इन बिगड़ी मूरतों को , सारे सुधार दे दो ।।5।।
पोशीदा ग़म मेरे सुन , सुनकर न लुत्फ़ ले जो ,
इक राज़दार ऐसा इक ग़मगुसार दे दो ।।6।।
कुछ लोग शौक़ से भी , लेते हैं क़र्ज़ तुमसे ,
मुझको ज़रूरतों की , ख़ातिर उधार दे दो ।।7।।
दीवारें मत दो मुझको , दरवाज़े , खिड़कियाँँ भी ,
बस मुझको तुम अकेली , छत उस्तुवार दे दो ।।8।।
(उस्तुवार=स्थायी/दृढ़ ,बुततराश=मूर्तिकार ,पोशीदा=गुप्त,ग़मगुसार=हमदर्द)
-डॉ. हीरालाल प्रजापति