■ मुक्तक : 439 – रोती-सिसकती क़हक़हों Posted on January 9, 2014 /Under मुक्तक /With 0 Comments ( चित्र Google Search से अवतरित ) रोती-सिसकती क़हक़हों भरी हँसी लगे ॥ बूढ़ी मरी-मरी जवान ज़िंदगी लगे ॥ इक वह्म दिल-दिमाग़ पे है तारी आजकल , रस्सी भी साँप सी लटकती या पड़ी लगे ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति 3,481