114 : ग़ज़ल – चाहता हूँ कि ग़म में भी
चाहता हूँ कि ग़म में भी रोओ न तुम ।।
पर ख़ुशी में भी बेफ़िक्र होओ न तुम ।।1।।
कुछ तो काँटे भी रखते हैं माक़ूलियत ,
फूल ही फूल खेतों में बोओ न तुम ।।2।।
रोज़ लुटता है आँखों से काजल यहाँ ,
इस जगह बेख़बर होके सोओ न तुम ।।3।।
जिससे तुम हो उसी से हैं सब ग़मज़दा ,
फिर अकेले-अकेले ही रोओ न तुम ।।4।।
याद से जिसने तुमको भुला रख दिया ,
भूल से उसकी यादों में खोओ न तुम ।।5।।
माना दुश्मन का है , है मगर हार ये ,
इसमें फूलों से काँटे पिरोओ न तुम ।।6।।
दब ही जाओ , कुचल जाओ , मर जाओ सच ,
बोझ ढोओ ; पर इतना भी ढोओ न तुम ।।7।।
लोग चलनी ही हमको समझने लगें ,
इतने भी हममें नश्तर चुभोओ न तुम ।।8।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति