■ मुक्तक : 466 – ना सुनहरा स्वप्न बुनती Posted on February 5, 2014 /Under मुक्तक /With 0 Comments ना सुनहरा स्वप्न बुनती ना व्यथित होती ।। ना निरंतर जागती ना अनवरत सोती ।। आग मन की अश्रु जल से यदि बुझा करती , देखती कम आँख निस्संदेह बस रोती ।। -डॉ. हीरालाल प्रजापति 3,226