■ मुक्तक : 493 – हँसने की आर्ज़ू में Posted on February 26, 2014 /Under मुक्तक /With 0 Comments पहले हँसाने ख़ुद रो , ज़ार-ज़ार मरे है ॥ ख़म्याज़ा दूसरे का , अपने हाथों भरे है ॥ अहमक़ नहीं न नादाँ , तो वो है क्या बताओ ; बदले में फिर वफ़ा की , जो उमीद करे है ? -डॉ. हीरालाल प्रजापति 3,330