121 : ग़ज़ल – रह गया है परिंदा तो
रह गया है परिंदा तो अब नाम भर ।।
पर तो सय्याद ने सब दिये हैं कतर ।।1।।
खाद-पानी से महरूम बंजर ज़मीं ,
तुख़्म कैसे हो कोई वहाँ फिर शजर ?2।।
बस दरिंदों , फ़रिश्तों का रहवास है ,
शह्र में आदमी के न बसते बशर ।।3।।
कहते थकते न थे इश्क़ को कल ख़ुदा ,
क़ह्र बोलें इसी मुँह से अब हम मगर ।।4।।
प्यार दे मत ब-क़द्रे- ज़रूरत सही ,
क़ाबिले दाद हूँ थोड़ी इज्ज़त तो कर ।।5।।
इश्तेहार अपने फ़न का भी होता अगर ,
हम भी होते तुम्हारी तरह नामवर ।।6।।
दर से मेरे ग़रीबी उठी तो मगर ,
दीनो-ईमान रखकर किसी ताक पर ।।7।।
जब थे बीमार कोई न आया कभी ,
हैं जनाज़े में शामिल कई डॉक्टर ।।8।।
( तुख़्म = बीज )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति