ग़ज़ल : 124 – रोते-रोते हो गईं जब मुद्दतें……….
रोते-रोते हो गईं जब मुद्दतें ।।
तब लगीं थीं हमको हँसने की लतें ।।1।।
उनकी खोटी ही रही नीयत सदा ,
पर खरी उनको मिलीं सब बरक़तें ।।2।।
चोर-गुण्डों से ही थीं पहले मगर ,
हो रहीं अब कुछ पुलिस से दहशतें ।।3।।
देखकर मंज़िल पे लँगड़ों की पहुँच ,
पैर वाले कर रहे हैं हैरतें ।।4।।
कुछ को मिल जाता है सब कुछ मुफ़्त में ,
कुछ को कुछ मिलता न दे-दे क़ीमतें ।।5।।
एक जैसी मेहनतों के बावज़ूद ,
कुछ को मिलते नर्क कुछ को जन्नतें ।।6।।
वो जो ईनामों का ख़्वाहिशमंद है ,
हैं सज़ाओं वाली उसकी हरक़तें ।।7।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति