127 : ग़ज़ल – उसके इश्क़ में बेशक़ मैनें
उसके इश्क़ में बेशक़ मैनें ज़ीस्त को खोया था ।।
लेकिन यार बिहिश्त भी तो जीते जी ही तो पोया था ।।1।।
क्यों मानूँ न मैं उसका एहसाँ , शुक्र करूँ गिन-गिन ?
जिसने ख़ुद को मिटाकर पूरा मुझको बनोया था ।।2।।
कुछ तो होगा सबब सब सज्दा करते जहाँ जा-जा ,
इक मैनें ही अकेले क्यों वाँ सर न झुकोया था ?3।।
आँखों ने न मेरी इक क़तरा अश्क़ भी टपकाया ,
दर्या भरके मगर दिल उसके हिज्र में रोया था ।।4।।
अब कंकड़ भी उठाना क्यों लगता है मुझे भारी ?
जब बचपन से ही सिर पर बस फ़ौलाद को ढोया था ।।5।।
अब आराम तो काँटों पर ही रूह को मिलता है ,
मेरा जिस्म कभी फूलों पर हाय ! न सोया था ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति