मुक्तक : 548 – शाह होकर चोर की Posted on June 20, 2014 /Under मुक्तक /With 0 Comments शाह होकर चोर की मानिंद क्यों छुप-छुप रहे ? चहचहाए क्यों नहीं रख कर ज़ुबाँ चुप-चुप रहे ? राज़ क्या है जबकि अपने आप में इक नूर तुम _ क्यों तुम अपनी तह में क़ायम रख अँधेरा धुप रहे ? -डॉ. हीरालाल प्रजापति 111