■ मुक्तक : 564 – ज़िरह ,सबूत ,गवाहों Posted on July 2, 2014 /Under मुक्तक /With 0 Comments ज़िरह , सबूत , गवाहों का खेल सारा है ॥ अदालतों में ये इंसाफ़ का नज़ारा है ॥ किसी का क़त्ल-ए-आम भी उन्होने बख़्श दिया , किसी को भूल पे भी मुंसिफ़ों ने मारा है ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति 3,334