141 : ग़ज़ल – गर्मी में अब्र की कब
गर्मी में अब्र की कब , ख़ैरात माँगता हूँ ?
मौसम में बारिशों के , बरसात माँगता हूँ ॥
तंग आ चुका घिसटते , उड़ने को पंख कब मैं ,
चलने के वास्ते बस , दो लात माँगता हूँ ॥
हैं पास तेरे नौ-दस , एकाध मुझको दे दे ,
कब तुझसे रोटियाँ मैं , छः सात माँगता हूँ ?
हक़ की करूँ गुजारिश , हक़ के लिए लड़ूँ मैं ,
कब भीख की तलब ? कब , सौग़ात माँगता हूँ ?
उम्मीदे-ख़ैरमक़्दम , ग़ैरों से कब मैं रक्खूँ ?
अपनों में बस ज़रा सी , औक़ात माँगता हूँ ॥
(अब्र =बादल ; ख़ैरमक़्दम =स्वागत-सत्कार )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति