146 : ग़ज़ल – इतना जिगर फ़िगार
इतना *जिगर फ़िगार हूँ ॥
रोता मैं ज़ार-ज़ार हूँ ॥
तड़पे न वो मुझे मगर ,
मैं उसको बेक़रार हूँ ॥
वो बुझती शम्अ है तो क्या ?
मैं ज़िंदा इक शरार हूँ ॥
अहमक़ बनूँ मैं जानकर ,
वैसे मैं होशियार हूँ ॥
हूँ दोस्त को तो गुल मगर ,
दुश्मन को भी न ख़ार हूँ ॥
उसके लिए मैं सिर्फ़ इक ,
सीढ़ी या रहगुज़ार हूँ ॥
नज़रों से गिर गया तो क्या ?
दिल में अभी शुमार हूँ ॥
दिखता नहीं तो उसको ये –
लगता कि मैं फ़रार हूँ ॥
बस मक़्बरा वो ताज सा ,
मैं पीर की मज़ार हूँ ॥
ज़ख़्मी *उक़ाब हूँ तो क्या –
मैं साँप का शिकार हूँ ?
( *जिगर फ़िगार=भग्न हृदय * उक़ाब =गरुड़ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति