मुक्तक : 601 – रातें हों, दिन हों Posted on September 16, 2014 /Under मुक्तक /With 0 Comments रातें हों, दिन हों, शामें हों या दोपहर, सवेरे ॥ डाले रखते हैं मेरे घर मेहमाँ अक्सर डेरे ॥ रहने के अंदाज़ भी उनके बिलकुल ऐसे हैं सच , यूँ लगता है मैं हूँ मेहमाँ वो घर-मालिक मेरे ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति 113