अकविता [ 4 ] : पुनर्जन्म
बारंबार अपनी गलतियों से प्राप्त असफलताओं ने
मेरे मन में दृढ़ किया था यह विचार कि
आज जब सब कुछ लुट चुका है
अक़्ल आई मुझमें
तो सोचा कि आत्महत्या कर लूँ
और ले लूँ पुनर्जन्म –
इस संकल्प के साथ कि
अब भूले से कोई भूल नहीं दोहराऊँगा
और ठीक तभी तूने अवतार लिया है
तो जीते जी ही
मैंने तुझे
सम्पूर्ण विश्वास से अपना पुनर्जन्म मान लिया है ।
और पूर्व जन्म की सम्पूर्ण स्मृतियों के साथ तुझे स्वयं मानकर
ऐसा तैयार करूँगा
कि किसी की कृपादृष्टि के बिना ही
तेरे अपने सद्प्रयासों से अवश्यमेव पूर्ण हो
तेरी प्रत्येक सद इच्छा ।
मैं तो रहा
बस ख़्वाब देखता शेख़चिल्ली
तू जो चाहेगी वो पाके रहेगी
मैं अनपढ़ ऐसी शिक्षा तुझे दिलवाऊँगा ।
मैं आलसी था तुझे स्फूर्तिवान बनाऊँगा ।
मैं अनुशासनहीन तुझे अनुशासन का जीवन में महत्व समझाऊँगा ।
मैं केवल कहता था तुझको कर्मठ बनाऊँगा ।
मैं मोहग्रस्त रहा तुझे त्यागमयी बनाऊँगा ।
मैं मुफ़्त का अभिलाषी रहा ;
तुझे सब कुछ अपने परिश्रम से मूल्य चुकाकर
क्रय कर सकने के सक्षम बनाऊँगा ।
मैं सुप्त रहा तुझे जाग्रत बनाऊँगा ।
मैं रोता-रुलाता तुझे हँसना-हँसाना सिखाऊँगा ।
मैं सदैव पीछे-पीछे चला किन्तु तुझे पथप्रदर्शक बनाऊँगा ।
कुल मिलाकर मैं यह कह रहा हूँ कि
मैं अत्यंत साधारण अपरिचित बन के रहा
तुझे असाधारण और सुप्रसिद्ध बनाने के लिए
हर संभव प्रयास करूँगा ।
मैं तुझे गलती से भी कोई गलती नहीं करने दूँगा ।
आज तेरे जन्म पे तेरे पिता का
ये अटल वादा है तुझसे ।
ऐ ,
मेरी
बिलकुल मेरा ही प्रतिरूप ,
बेटी ।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति