गीत (7) : सब चुप ! फिर मैं भी क्यों बोलूँ ?
सब चुप ! फिर मैं भी क्यों बोलूँ ?
सन्नाटे में बम फट जाये ।
गज़ भर की ज़बान कट जाये ।
कोई नहीं जब कुछ कहता है तो ,
मैं ही क्यों अपना मुँह खोलूँ ?
क्यों ऐसा चाहे जब घटता है ?
सोच रहे सभी ये सब क्या है ?
टहलते हुए सब खा पीकर ,
इक मैं ही भूखा इत-उत डोलूँ !
क्वाँरे क्यों बंजर जोत रहे ?
मुखड़ों पे डामल पोत रहे ?
पूछ रहा है पति पत्नी से ,
क्या मैं तेरी सखि के सँग सोलूँ ?
साथ समय के ये भागे है रे ।
बल्कि कहीं तो उससे आगे है रे ।
जैसा हुआ ये जग धावक है ,
मैं भी कहीं न वैसा हो लूँ ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति