गीत ( 11 ) : एक सिंहिनी हो चुकी जो भेड़ थी ॥
एक सिंहिनी हो चुकी जो भेड़ थी ॥
खुरदुरेपन में भी सच नवनीत थी ।
चीख में भी पहले मृदु संगीत थी ।
एक पाटल पुष्प की वह पंखुड़ी –
दूब कोमल अब कंटीला पेड़ थी ॥
तमतमा बैठी अचानक क्या हुआ ?
मैंने उसको बस लड़कपन सा छुआ !
कह गई अक्षम्य वह अपराध था –
जो ठिठोली, इक हँसी, टुक छेड़ थी ॥
मात्र जन थी अब नगर अध्यक्ष वो ।
वर्षों के उपरांत हुई प्रत्यक्ष वो ।
जब वो मिलकर चल पड़ी तो ये लगा –
भेंट थी वो या कोई मुटभेड़ थी ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति