गीत (30) – केवल क़द-काठी तक मेरा हृदय आँकते हो
पेड़ हरा औ’ भरा भी सूखी डाली सा लगता ॥
इक तू न हो तो सारा मेला खाली सा लगता ॥
तू जो चले सँग तो काँटों की चुभन भली लगती ।
तू जो साथ खाए तो नीम मिसरी की डली लगती ।
तुझ बिन अपनी ईद मुहर्रम जैसी होती है –
तू हो तो होलिका-दहन दीवाली सा लगता ॥
झर-झर बहती रहतीं , रहतीं तनिक नहीं सूखी ।
जब तेरे दर्शन को अँखियाँ हो जातीं भूखी ।
मुझको थाल सुनहरा लगने लगता है सूरज –
चाँद चमकती चाँदी वाली थाली सा लगता ॥
केवल क़द-काठी तक मेरा हृदय आँकते हो ।
रहन-सहन पहनावा भी तुम व्यर्थ झाँकते हो ।
मेरे तल तक पहुँचो फिर गहराई बतलाना –
नील-गगन से नद भी उथली नाली सा लगता ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति