गीत (33) – जो भी है मुझमें मिट्टी
जो भी है मुझमें मिट्टी तुम आज उसको छूकर ,
आँखों को चौंधियाता कर दो विशुद्ध सोना ॥
जो मुझमें ऊगकर यों भरपूर लहलहाए ।
जल भी न दूँ मैं फिर भी प्यासों से मर न जाए ।
कुछ इस तरह से मेरे बंजर में हल चलाओ
पढ़-पढ़ के मंत्र मुझमें जादू के बीज बोना ॥
बिन झिझके बिन विचारे होकर निःशंक मुझ पर ।
लोगों ने छाप डाले झूठे कलंक मुझ पर ।
तुम मेरी गंगा-जमुना तुम मेरा आबे ज़मज़म
घिस-घिस , रगड़-रगड़ के मुझको नहाना-धोना ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति