■ मुक्तक : 695 – संगे मर्मर का महल ? Posted on April 10, 2015 /Under मुक्तक /With 0 Comments घोर पतझड़ में भी वह क्यों खिल रहा है दोस्तों ? क्या उसे अभिवांछित सब मिल रहा है दोस्तों ? हो गया वह आज कैसे संगे मर्मर का महल ? जो कि कल तक माँद या इक बिल रहा है दोस्तों !! -डॉ. हीरालाल प्रजापति 3,364