162 : ग़ज़ल – आईना पारा वाला
आईना पारा वाला बंदर का देख ।।
हैराँ हूँ शीशे का घर पत्थर का देख ।।1।।
बाहर से वह लगती गंगा-जमुना ठीक ,
छी ! उसको पाया नाली अंदर का देख ।।2।।
इतना अलसाया था जा लेटा फ़िलफ़ौर ,
कुछ ना सोचा बिस्तर भी खंज़र का देख ।।3।।
कुछ तो राज़ है वर्ना यूँ ही भूखा शेर ,
क्यों नाँँ हो हम्लावर झुण्ड बक़र का देख ?4।।
( बक़र = गाय , बैल )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति