163 : ग़ज़ल – काँव-काँव अपने ॥
लगते हैं सबको अच्छे कैसे हों ठाँव अपने ?
प्यारे , बुरे भी हों तो ,लगते हैं गाँव अपने ।।1।।
मंज़िल अगर नहीं हो तो आज ही बना लो ,
या आज ही कटाकर रख डालो पाँव अपने ।।2।।
जबसे दिया है उसके हाथों में हमने सूरज ,
तब से उसी के बस में हैं धूप-छाँव अपने ।।3।।
कोयल को ही इजाज़त है याँ पे बोलने की ,
चुपवाओ , करते कौए तुम काँव-काँव अपने ।।4।।
जब जीतते नहीं तो क्यों खेलते जुआ हो ?
क्या हारने लगाते हर बार दाँव अपने ?5।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति