मुक्तक : 721 – क़ाफ़िला-दर-क़ाफ़िला ॥ Posted on May 28, 2015 /Under मुक्तक /With 0 Comments रंगीं-महफ़िल , लाव-लश्कर , क़ाफ़िला-दर-क़ाफ़िला ॥ इसमें क्या शक़ मैंने जो चाहा मुझे अक्सर मिला ॥ फिर भी मेरी अपनी भरसक कोशिशों का तो नहीं , मुझको लगता है कि बस क़िस्मत का ही है यह सिला ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति 120