मुक्तक : 749 – कपड़े झड़ा के रह गए ॥ Posted on August 12, 2015 /Under मुक्तक /With 0 Comments कसमसा के तिलमिला के फड़फड़ा के रह गए ॥ लाज से धरती में सर अपना गड़ा के रह गए ॥ स्वप्न निशिदिन जिसको चित करने का तकते थे सदा , धूल उससे चाटकर कपड़े झड़ा के रह गए ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति 114