171 : ग़ज़ल – गोल चकरी ॥
तेरे आगे क्या मेरी औकात ठहरी ?
राजधानी तू मैं इक क़स्बा या नगरी ॥
यों तो हूँ मैं जिराफ़ सा पर तेरे आगे ,
सामने ज्यों ऊँट के बैठी हो बकरी !!
तेरे मेरे रंग में बस फ़र्क़ इतना ,
एक काला काग दूजा मृग सुनहरी !!
तेरे चक्कर काटती फिरती है दुनिया ,
मैं हवा से फरफराती गोल चकरी ॥
मुझसे मत मरु की तृषा तू कह बुझाने ,
चुल्लू भर पानी मैं तू इक झील गहरी ॥
क्या तुझे ललकार कर मरना मुझे है ?
तू पहलवान और मैं कृशकाय-ठठरी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति