गीत : 41 – मैं क्यों कवि बन बैठा ?
कई प्रश्न स्वयं के अनुत्तरित –
इक यह कि मैं क्यों कवि बन बैठा ?
बाहर चहुँँदिस वह चकाचौंध ।
आकाश-तड़ित सी महाकौंध ।
प्रत्येक उजालों का रागी ,
जुगनूँ तक पे सब रहे औंध ।
यद्यपि मैं पुजारी था तम का ,
क्या सोच के मैं रवि बन बैठा ?
नकली से सदा अति घृणा रखी ।
परछाईं स्वयं की भी न लखी ।
झूठों से बराबर बैर रहा ,
कभी भूल न पाप की वस्तु चखी ।
क्या घटित हुआ कि मैं जीवित ही ,
कहीं मूर्ति कहीं छवि बन बैठा ?
कब धर्म पे था विश्वास मुझे ?
कब होम-हवन था रास मुझे ?
जप-तप-पूजन लगते थे ढोंग ,
लगते थे व्यर्थ उपवास मुझे ।
क्यों यज्ञ में तेरी सफलता के ,
मैं स्वयं पूर्ण हवि बन बैठा ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति