■ मुक्तक : 803 – ख़ून के आँसू
नर्म चिकनाई को पैरों , से कुचलते थे कभी जो ,
खुरदुरे पत्थर पे अपने , आज रो-रो गाल घिसते ।।
तोड़ते थे , फोड़ते थे , जो हथौड़े से सभी को ,
वक़्त की वो चक्कियों में , मिर्च से चुपचाप पिसते ।।
जो ठुमकती चलतीं कलकल , बहतीं नदियाँ रोककर कल ,
पर्वतों से बाँधते थे , बाँध ताली ठोककर कल ;
वो ही गहरी खाइयों में , आज ग़म की गिर पड़े तो ,
उनकी आँखों से मुसल्सल , ख़ून के आँसू हैं रिसते ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति