■ मुक्तक : 820 – गुलों की शक्ल Posted on April 4, 2016 /Under मुक्तक /With 0 Comments गुलों की शक्ल में दरअस्ल यह बस ख़ार होती है ॥ लगा करती है दरवाज़ा मगर दीवार होती है ॥ हक़ीक़त में ही हम यारों न पैदा ही हुए होते , अगर यह जान जाते ज़िंदगी दुश्वार होती है ॥ ( गुल = पुष्प , ख़ार = काँटा ) -डॉ. हीरालाल प्रजापति 5,190