● ग़ज़ल : 194 – ‘गब्बर’ सा हो गया ॥
फूलों सा मैं यकायक नश्तर सा हो गया ।।
थपकी से एक थप्पड़-ठोकर सा हो गया ।।
माना मैं मोम था कल , मक्खन सा नर्म था ,
कुछ हो गया कि अब मैं पत्थर सा हो गया ।।
‘शोले’ का सच में था मैं ‘ठाकुर’ सा क्या कहूँ ?
‘शोले’ का आजकल मैं ‘गब्बर’ सा हो गया ।।
पहले नहीं थी उसकी आँखों में भी जगह ,
अब दिल-दिमाग़ में भी इक घर सा हो गया ।।
वो मुझसे यों कटे बस लगता है मुझको ये ,
जैसे कोई परिंदा बेपर सा हो गया ।।
रगड़ा गया है मुझको इतना कि खुरदुरे ,
इक रेगमाल से मैं मर्मर सा हो गया ।।
भूकंप इतने झेले मेरे मकान ने ,
है तो नया ही लेकिन जर्जर सा हो गया ।।
पहले नहीं थी इसमें मूरत कोई मगर ,
मस्जिद सा मेरा दिल अब मंदिर सा हो गया ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
उमदा अभिव्यक्ति