ग़ज़ल : 196 – पछाड़ बन बैठे ॥
तेरी चाहत में यार तिल से ताड़ बन बैठे ।।
सच में तुलसी से एक वट का झाड़ बन बैठे ।।1।।
ईंट-पत्थर की थी दिवार ऊँची-मोटी बस ,
तेरे आने से खिड़की औ’ किवाड़ बन बैठे ।।2।।
चिड़चिड़ाहट के बुत थे और ग़ुस्सेवर थे हम ,
तूने चाहा तो धीरे-धीरे लाड़ बन बैठे ।।3।।
तुझको छुप-छुप दरार में से झाँकने वाले ,
आज तेरा ही पर्दा , ओट , आड़ बन बैठे ।।3।।
ख़ुद की जीते जी जो जुगत न बन सके तेरी ,
तेरे मक़्सद पे जान दे जुगाड़ बन बैठे ।।4।।
बस मोहब्बत की कुश्तियों में सब रक़ीबों को ,
करके छोड़े जो चित ही वो पछाड़ बन बैठे ।।5।।
दुश्मनों को तेरे जलाने – भूनने को हम ,
गाह तंदूर गाह एक भाड़ बन बैठे ।।6।।
( बुत = प्रतिमा , ग़ुस्सेवर = क्रोधी , रक़ीबों = अपनी प्रेमिका के प्रेमी , गाह = कभी , भाड़ = अनाज भूनने की भट्टी )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति