■ मुक्तक : 851 – वक़्त-ए-आख़िर
वक़्त-ए-आख़िर सही रे एक बार ही मुझको ,
अपने सीने से तू लगा के माफ़ कर देना ।।
मेरी ख़ातिर जो तेरे दिल में मैल है तारी ,
कर के मुझको हलाल ख़ूँ से साफ़ कर देना ।।
झूठ बदनाम इस क़दर हुआ कि दुनिया को ,
अब न क़ाबिल बचा हूँ मुँह तलक दिखाने के ;
मुझ सरेआम बेलिबास को चले-चलते ,
इक कफ़न जानेजाँ सियह लिहाफ़ कर देना ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति