*मुक्त-मुक्तक : 862 – बाग़ ही बाग़ हैं Posted on October 6, 2016 /Under मुक्तक /With 0 Comments रेगज़ारों में भी बरसात की फुहारें हैं ॥ बाग़ ही बाग़ हैं फूलों की रहगुज़ारें हैं ॥ जब थीं आँखें थे सुलगते हुए सभी मंज़र , जब से अंधे हैं हुए हर तरफ़ बहारें हैं ॥ -डॉ. हीरालाल प्रजापति 126