ग़ज़ल : 238 – द्रोपदी न समझो ॥
बारिश में बहते नालों ख़ुद को नदी न समझो ।।
लम्हा तलक नहीं तुम ख़ुद को सदी न समझो ।।1।।
अच्छे के वास्ते गर हो जाए कुछ बुरा भी ,
बेहतर है उस ख़राबी को फिर बदी न समझो ।।2।।
दिखने में मुझसा अहमक़ बेशक़ नहीं मिलेगा ,
लेकिन दिमाग़ से मुझ को गावदी न समझो ।।3।।
पौधा हूँ मैं धतूरे का भूलकर भी मुझको ,
अंगूर गुच्छ वाली लतिका लदी न समझो ।।4।।
जिसको वरूँगी मेरा पति बस वही रहेगा ,
सीता हूँ मैं मुझे तुम वह द्रोपदी न समझो ।।5।।
(बदी = पाप , अहमक़ = भोंदू , गावदी = बेवकूफ़ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति