ग़ज़ल : 246 – क़ब्र खोदने को ……
हैराँ हूँ ; लँगड़े , चीतों सी तेज़ चाल लेकर ।।
चलते हैं रोशनी में अंधे मशाल लेकर ।।1।।
हुशयारों से न जाने करते हैं कैसे अहमक़ ,
आज़ादियों के चर्चे हाथों में जाल लेकर ।।2।।
चलते नहीं उधर से तलवार , तीर कुछ भी ,
जाते हैं फिर भी वाँ सब हैराँ हूँ ढाल लेकर ।।3।।
हरगिज़ कुआँ न खोदें प्यासों के वास्ते वो ,
बस क़ब्र खोदने को चलते कुदाल लेकर ।।4।।
माथे नहीं हैं जिनके उनके लिए तिलक को ,
कुछ लोग थालियों में घूमें गुलाल लेकर ।।5।।
कुछ माँगने चला हूँ तो ये मुफ़ीद होगा ,
जाऊँ मैं उनके आगे मँगतों सा हाल लेकर ।।6।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति