
जाने क्यों सिर पे लोहा उठा , जैसे फूलों को ढोता हूँ मैं ।।
छटपटाऊँ न काँटों पे चल , बल्कि सच शाद होता हूँ मैं ।।
तुम न मानोगे मैं बेतरह , कोई देखे न ऐसी जगह ,
आज भी उसकी यादों में इक, भूखे बच्चे सा रोता हूँ मैं ।।
( शाद = प्रसन्न , बेतरह = अत्यधिक )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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