ग़ज़ल : 274 – सिर पे आफ़्ताब
न जब नशा मैं करूँ साथ क्यों शराब रखूँ ?
लगे न प्यास तो हाथों में फिर क्यों आब रखूँ ?
मैं सख़्त उम्मी हूँ दुनिया को यह पता है मगर ,
मैं अपने हाथों में हर वक़्त क्यों किताब रखूँ ?
मुझे पसंद है दिन में भी तीरगी ही वले ,
तो क्यों मैं रात उठा सिर पे आफ़्ताब रखूँ ?
मैं इक नज़ीर हूँ दुनिया में मुफ़्लिसी की बड़ी ,
मुझे क्या हक़ है कि आँखों में फिर भी ख़्वाब रखूँ ?
वो मुझको चाहे न चाहे ये उसकी मर्ज़ी अरे ,
मैं उसको कितना करूँ प्यार क्यों हिसाब रखूँ ?
वो मुझको क़तरा भी रखता नहीं है देने कभी ,
मैं उसको सौंपने हर वक़्त क्यों तलाब रख़ूँ ?
तरसता है वो मेरे मैं भी उसके दीद को फिर ,
मिले कहीं वो मैं चेहरे पे क्यों हिजाब रखूँ ?
[ आब = जल // उम्मी = अनपढ़ // तीरगी = अंधकार // वले = किंतु // आफ़्ताब = सूर्य // नज़ीर = उदाहरण //मुफ़्लिसी = ग़रीबी // क़तरा = बूँद // दीद = दर्शन // हिजाब = घूँघट ]
-डॉ. हीरालाल प्रजापति