मुक्तक : 927 – डोली
माथे बीच लगी कालिख ,
छूने भर से अंधा बोले ,
मुझको तो यह हल्दी औ’
चंदन की रोली लगती है ।।
चपटी से भी चपटी कोई
ईंट बहुत ही दूरी से ,
तेज़ नज़र को भी शायद
पूछो तो गोली लगती है ।।
अक़्ल ज़रा सी जिनको ऊपर
वाले ने कुछ कम बख़्शी ;
आँखें दीं लेकिन उनमें ना
देखने की कुछ दम बख़्शी ;
ऐसों को हैरत क्या कंधों
पर चलने वाली अर्थी ,
यदि ख़ामोशी से बढ़ती
दुल्हन की डोली लगती है ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति