ग़ज़ल : 281 – दिला
अजब इक ग़मज़दा के पीछे चलता क़ाफ़िला है ।।
नहीं रोता कोई हर शख़्स का चेह्रा खिला है ।।
जो कहता था न जी पाऊँगा इक दिन बिन तुम्हारे ,
वो सालों-साल से ख़ुश रह रहा मेरे बिला है ।।
न जाने किस ग़लतफ़हमी में पड़ वो मुझसे रूठे ,
बता दें गर तो कर दूँ दूर जो शिक्वा-गिला है ।।
मैं जैसा भी हूँ अपनी वज़्ह से हूँ और ख़ुश हूँ ,
ये मेरा हाल मेरी हक़परस्ती का सिला है ।।
कोई कितना भी ताक़तवर हो लेकिन आदमी के ,
हिलाने से न इक पर्वत कभी कोई हिला है ।।
वो झूठा है जो कहता है कि उसने जो भी चाहा ,
उसे हर बार आगे-पीछे या अक्सर मिला है ।।
बना हो जो निखालिस और ख़ुशबूदार ज़र से ,
भला किसका यहाँ उसके सिवा वो दिल ; दिला है ।।
( बिला =बग़ैर , हक़परस्ती =सत्यनिष्ठा , ज़र =स्वर्ण , दिला =हे हृदय )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति