ग़ज़ल : 285 – बदनसीब हरगिज़ न हो
चोर हो , डाकू हो , क़ातिल हो , ग़रीब हरगिज़ न हो ।।
आदमी कुछ हो , न हो बस , बदनसीब हरगिज़ न हो ।।
ज़िंदगी उस शख़्स की , क्या ज़िंदगी है दोस्तों ,
गर जहाँ में एक भी , जिसका हबीब हरगिज़ न हो ।।
हक़ नहीं बीमार होने , का उसे जिसकी न याँ –
हो सके तीमारदारी , औ’ तबीब हरगिज़ न हो ।।
हमको कब लाज़िम फ़रिश्ता , और कब शैतान ही ,
चाहिए इक आम इंसाँ , जो अजीब हरगिज़ न हो ।।
कोह पर चढ़ते हुए हो , सर पहाड़ी बोझ क्या ,
पीठ पर लेकिन किसी के , भी सलीब हरगिज न हो ।।
इक क़लमकार , उम्दा शायर , होके तू भूखा मरे ,
उससे बेहतर मस्ख़रा बन , जा अदीब हरगिज़ न हो ।।
( तबीब = चिकित्सक , कोह = पहाड़ )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति