● ग़ज़ल : 288 – गाली
चाहता हूँ कि बकूँ उसको गाली पे गाली ।।
लफ़्ज़ बस मुँह से निकलते हैं दो ही हट , साली ।।
हुस्न से लगती है मंदिर की सीता-राधा वो ,
है तवाइफ़ के भी क़िरदार से बड़ी वाली ।।
शाहख़र्च इतनी है इतनी कि हो यक़ीं कैसे ,
वो किया करती है दिन-रात सिर्फ़ हम्माली ।।
अपनी बोली से तो कोयल का चूज़ा लगती है ,
है इरादों से मगर ख़ौफ़नाक और काली ।।
जब जला लेती है होली दिलों की रूई सी ,
तब मनाती है शबोरोज़ ईद-दीवाली ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति