ग़ज़ल : 289 – तकने लगे हैं शौक़ से
तकने लगे हैं शौक़ से आईने अब अंधे ।।
गंजे अमीरुल-ऊमरा रखने लगे कंघे ।।
जानूँ न वो कैसी बिना पर दौड़ते-उड़ते ,
ना पैर हैं उनके न उनकी पीठ पर पंखे ।।
ये जायदादो मिल्क़ियत , माया , ख़ज़ाने सब ,
उनने जमा सचमुच किए कर-कर खरे धंधे ।।
जितना बदन शफ़्फ़ाक़ है उनका कँवल सा वो ,
उतने ही हैं दिल के बुरे , नापाक औ’ गंदे ।।
ख़ुशियाँ हमेशा ही लगीं मानिंद ए फुट-इंच ,
ग़म लगे हमको प्रकाशी वर्ष से लंबे ।।
मेहसूल भी देते जहाँ के लोग रो-रो कर ,
देंगे मदद के नाम पर क्या हँस के वो चंदे ?
पीते नहीं कितने ही दारू बेचने वाले ,
मालिक न लेकिन कपड़ा मिल के रह सकें नंगे ।।
उसका है जीने का तरीक़ा मुफ़्लिसों जैसा ,
कितने ख़ज़ानों पर मगर उसके गड़े झंडे ।।
जब मानते ही तुम नहीं मौज़ूदगी रब की ,
क्यों बाँधते हो हाथ में ता’वीज़ औ’ गंडे ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति