मुक्तक : 958 – गोवा
फ़ाख़्ताएँ मिलीं , बुलबुलें अनगिनत ,
था ज़रूरी बस इक राज-सारस हमें ।।
ज़र ख़ुमों के ज़ख़ीरों की थी कब तलब ,
लाज़िमी था फ़क़त एक पारस हमें ।।
इस क़दर अपनी क़िस्मत के थे दास हम ।
शेर थे और चरते रहे घास हम ।
हर घड़ी रुख़ रखा लाख गोवा तरफ़ ,
पाँव ले – ले गए पर बनारस हमें ।।
( ज़र = स्वर्ण , ख़ुम = मटका , ज़ख़ीरा = भण्डार )
-डॉ. हीरालाल प्रजापति