■ मुक्तक : 965 – त्रिशंकु Posted on June 2, 2020 /Under मुक्तक /With 2 Comments मंज़िल यों ढूँढता हुआ , भटक रहा हूँ मैं ।। शायद लगेगा आपको , मटक रहा हूँ मैं ।। मेरे लिए ज़मीं कहाँ , न आस्मान है , बनकर त्रिशंकु सच कहूँ , लटक रहा हूँ मैं ।। -डॉ. हीरालाल प्रजापति 3,347
Sir, abhi to Lockdown hai…..
हा हा हा हा